है ये वही खिड़की
जिससे
आशा की किरणें
झाँकती थी,
है ये वही कमरा
जिसमे उम्मीदें
पनपती थी।
जहाँ किताबों में
मोर पंख के साथ
सपने सँजोए जाते थे,
चौखटे पे
खुशियों के दिये
साँझ ढले,
रौशन होते थे ।
खिड़कियाँ अब भी है
पर वो बंद रहते है,
कमरे में ख़ामुशी
और सन्नाटे बसते है।
किताबें
दीमक चाटती है,
रौशनदानों में
मकड़ियों
का साया है,
क्यूँ अँधेरा अँधेरा
अँधेरा छाया है?
आज़ाद