Thursday 18 August 2022

वो बंद खिड़की

है ये वही खिड़की 

जिससे 

आशा की किरणें 

झाँकती थी,

है ये वही कमरा 

जिसमे उम्मीदें 

पनपती थी। 


जहाँ किताबों में 

मोर पंख के साथ 

सपने सँजोए जाते थे,

चौखटे पे 

खुशियों के दिये

साँझ ढले, 

रौशन होते थे ।


खिड़कियाँ अब भी है

पर वो बंद रहते है,

कमरे में ख़ामुशी 

और सन्नाटे बसते है।


किताबें 

दीमक चाटती है,

रौशनदानों में 

मकड़ियों 

का साया है, 

क्यूँ अँधेरा अँधेरा 

अँधेरा छाया है?


आज़ाद

Monday 27 March 2017

आज़ाद की पहली ग़ज़ल/آزاد کی پہلی غزل

Hindi

तज़ुर्बों को लफ़्ज़ों में कहने की जुर्रत की है

पहली दफा ग़ज़ल लिखने की जुर्रत की है 

मिली है सजा उसको, इस वज़ह से यारों
उस गूंगी ने महफ़िल में, बोलने की जुर्रत की है

अजी कौन पढ़ पाता मिज़ाज-ए-हुस्ना को
जो उसने रुख़ से पर्दा हटाने की जुर्रत की है

चलेगी गोली सीने को पार कर जायेगी
पगली ने क्यूं पढ़ने-पढ़ाने की जुर्रत की है

मिलेगी सज़ा अब तो "आज़ाद" मंजूर है
जो तूने कलम उठाने की जुर्रत की है 

                      -वेद प्रकाश साहू "आज़ाद" 

                                                                                                                   URDU


تذربو کو لفظوں میں کہنے کی جررت کی ہے 
                                                               پہلی دفعہ میں نے غزل لکھنے کی جررت کی ہے    


                                 ملی ہے سزا اس کو، اس وجہ سے یاروں
                                                     اس گونگی نے محفل میں بولنے کی جررت کی ہے

                    اجی کون پڑھ پاتا مزاج حسنہ کو
                                        جو اسنے رخ سے پردہ ہٹانے کی جررت کی ہے

                                                  چلے گی گولی سینے کو پار کر جائے گی
                                                               پگلی نے کیوں پڑھنے پڑھانے کی جررت کی ہے

                                  ملے گی سزا اب تو "آزاد" منظور ہے
                                               جو تو نے قلم اٹھانے کی جررت کی ہے

                                            "وےد  پرکاش ساہو "آزاد-
















Monday 1 August 2016

हार क्यूँ जाता हूँ अब हर गेम में
नफरत क्यूँ झलकती है अब उनके प्रेम में
करना चाहता हूँ वो कर नहीं सकता
ज़िन्दगी क़ैद हो गई हो जैसे शीशे के फ्रेम में

आज़ाद

Tuesday 24 May 2016

चारो तरफ बवाल सा क्यूँ है?




चारो तरफ बवाल सा क्यूँ है
जग ये लालमलाल सा क्यूँ है
ना जाने क्या पाने की होड़ है 

और क्या खोने का डर
हर दिल आज बेहाल सा क्यूँ है?


वो सबकुछ तो है, जिसे पाने की थी चाहत
दौलत-शोहरत, शान ओ शौक़त,
फिर भी हर शख्स कंगाल सा क्यूँ है?

Monday 23 May 2016

उंगली पकड़ के आपने.....



उंगली पकड़ के आपने,
सिखाया था मुझको चलना
पंछी बनकर गगन में,
है कैसे मुझको उड़ना


बिठा के एक दिन कहा था मुझसे
आएंगे रोड़े रास्ते में, तय है तेरा गिरना
बात ये मेरी रखना हमेशा याद
गिरना, संभलना, उठना और फिर चलना...

पोछना सब की आंसुओ को
पर खुद ना कभी तू रोना
चाहे कैसा भी आये वक्त
हरदम मुस्कुराते रहना।

वेद प्रकाश साहू'आज़ाद'
(२०१५ की रचना)

इंतहां हो गई इन्तिज़ार की





कहाँ चली गई हो

इस दिल को ग़म देकर

मेरे आंसुओ को भी रोके रखा

ना रोने की कसम देकर




किस खता की दे रही हो सज़ा

अपने यार को यूँ, बेरहम होकर




क्या हक़ है तुझे

ना रोने देती हो, न सोने देती हो

तड़प रहा है 'आज़ाद' अब तो

आ जाओ मेरे ज़ख्मों का मरहम लेकर


आज़ाद 
(२०१२ की रचना)

ज़िन्दगी का गेम



ज़िंदगी को एक गेम की तरह खेले जा रहा हूँ,

चाहत है विनर बनने की, 

तभी तो मुसीबतो को झेले जा रहा हूँ

एक लेवल पार करते ही दूसरा तैयार है, 

तमाम ताक़ते मेरे खिलाफ है

मानो पहाड़ सी मंज़िल को पाने अकेले जा रहा हूँ,

टारगेट चैलेंज की तरह सामने आ रही है,

सफल होने की अंधी दौड़ में,

कौन सा ये खेल मैं खेले जा रहा हूँ?

आपका आज़ाद